“हजारों पुस्तकें जो हर वर्ष प्रकाशित होती हैं उनमें से कुछ मनोरंजक होती हैं, कुछ शिक्षा प्रदान करती हैं, कुछ ज्ञानवर्धक होती हैं। एक पाठक अपने को भाग्यशाली समझ सकता है यदि उसे ऐसी पुस्तक मिले जो यह तीनों काम कर दे। योगी कथामृत इन सबसे और भी अनुपम है-यह एक ऐसी पुस्तक है जो मन और आत्मा के द्वार खोल देती है।”
Yogi katha amrit
योगानन्दजी की “आत्मकथा” का महत्त्व इस तथ्य के प्रकाश में बहुत अधिक बढ़ जाता है कि यह भारत के ज्ञानी पुरुषों के विषय में अंग्रेजी में लिखी गयी गिनी-चुनी पुस्तकों में से एक है, जिसके लेखक महोदय न तो पत्रकार हैं और न कोई विदेशी, बल्कि वे स्वयं वैसे ही ज्ञानी महापुरुषों में से एक हैं-सारांश यह कि योगियों के विषय में स्वयं एक योगी द्वारा लिखी गयी यह पुस्तक है।
एक प्रत्यक्षदर्शी के नाते आधुनिक हिन्दू-सन्तों की असाधारण जीवन-कथाओं एवं अलौकिक शक्तियों के वर्णनों से युक्त इस पुस्तक का सामयिक और सर्वकालिक, दोनों दृष्टियों से महत्त्व है। इस पुस्तक के प्रख्यात लेखक, जिनसे परिचित होने का सौभाग्य भारत तथा अमेरिका में मुझे प्राप्त हुआ था, के प्रति हर पाठक श्रद्धावनत और कृतज्ञ रहेगा।
निस्सन्देह उनकी असाधारण जीवन-कथा हिन्दू मन तथा हृदय की गहराइयों एवं भारत की आध्यात्मिक संपदा पर अत्यधिक प्रकाश डालने वाली पश्चिम में प्रकाशित पुस्तकों में से एक है। _ मुझे एक ऐसे सन्त श्रीयुक्तेश्वर गिरि से मिलने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ है, जिनके जीवन-इतिहास का इस पुस्तक में वर्णन है।
इस वंदनीय सन्त का चित्र मेरी पुस्तक “टिबेटन योग एण्ड सीक्रेट डाक्ट्रिन्स”” के मुखपृष्ठ पर दिया गया है। बंगाल की खाड़ी के तट पर उड़ीसा के पुरी शहर में श्रीयुक्तेश्वरजी से मेरी भेंट हुई थी। उस समय वे समुद्र-तट के निकट स्थित एक शान्त आश्रम के प्रधान थे तथा मुख्य रूप से युवा शिष्यों के एक दल को आध्यात्मिक शिक्षा प्रदान कर रहे थे। उन्होंने संयुक्त राज्य
अमेरिका तथा समस्त अमेरिका महाद्वीप एवं इंग्लैंड में गहरी रुचि दिखायी और अपने मुख्य शिष्य योगानन्दजी की, जिनसे वे हदय से प्रेम करते थे और जिन्हें उन्होंने अपने संदेशवाहक के रूप में १९२० में पश्चिम में भेजा था, सुदूर देशवर्ती गतिविधियों, विशेष कर कैलिफोर्निया में उनके द्वारा किये जा रहे कार्यों के विषय में मुझ से प्रश्न किये।
श्रीयुक्तेश्वरजी का स्वभाव कोमल और वाणी मृदु थी। उनकी उपस्थिति सुखद थी और अपने शिष्यों द्वारा अनायास आदर-प्रदान के वस्तुतः वे योग्य थे। जो कोई भी श्रीयुक्तेश्वरजी से परिचित था, भले ही वह किसी भी समाज-समुदाय का क्यों न हो, उन्हें अत्यन्त आदर की दृष्टि से देखता था।
आश्रम के प्रवेशद्वार पर वे मेरे स्वागतार्थ खड़े हुए, उस समय के उनके गेरुआ वस्त्र – जो सांसारिक कामनाओं का त्याग करने वाले संन्यासी का वस्त्र है – धारण किये हुए ऊँचे, सीधे, साधु आकार का मुझे स्पष्टतः स्मरण है। उनके केश लंबे और किंचित् धुंधराले थे तथा उनका मुख श्मश्रुमंडित था।
उनकी देह हष्ट-पुष्ट परन्तु पतली, सुगठित थी तथा उनके पग फुर्तीले थे। उन्होंने अपने इहलौकिक निवास के लिए पावन नगरी पुरी का चयन किया था, जहाँ भगवान जगन्नाथ के सुप्रसिद्ध मन्दिर का दर्शन करने के लिए भारत के प्रत्येक प्रान्त से प्रतिदिन भारी संख्या में पवित्र हिन्दु भक्त पहुँचा करते हैं।
पुरी में ही श्रीयुक्तेश्वरजी ने १९३६ ईस्वी में अपने इस अस्थायी शरीर के दृश्यों से अपने अनित्य चक्षुओं को बन्द कर शरीर त्याग किया, यह जानते हुए कि उनका अवतरण पूर्ण सफलता प्राप्त कर चुका है।
मेरे माता-पिता एवं मेरा बचपन
परम सत्य की खोज और उसके साथ जुड़ा गुरु-शिष्य संबंध प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है।
इस खोज के मेरे अपने मार्ग ने मुझे एक भगवत्स्वरूप सिद्ध पुरुष के पास पहुँचा दिया जिनका सुघड़ जीवन युग-युगान्तर का आदर्श बनने के लिये ही तराशा हुआ था।
वे उन महान विभूतियों में से एक थे जो भारत का सच्चा वैभव रहे हैं। ऐसे सिद्धजनों ने ही हर पीढ़ी में अवतरित हो कर अपने देश को प्राचीन मित्र (Egypt) एवं बेबीलोन (Babylon) के समान दुर्गति को प्राप्त होने से बचाया है।
मुझे याद आता है, मेरे शैशव-काल में पिछले जन्म की घटनाओं की स्मृतियाँ मेरे स्मृतिपटल पर उभर रही थीं, तथापि ये स्मृतियाँ उन घटनाओं के घटित होने के क्रम के अनुसार नहीं थीं। बहुत पहले के एक जन्म की स्पष्ट स्मृतियाँ मुझ में जागती थीं जब मैं हिमालय में रहनेवाला एक योगी था। अतीत की इन झांकियों ने किसी अज्ञात कड़ी से जुड़कर मुझे भविष्य की भी झलक दिखायी।
शिशु अवस्था की असहाय के अवमाननाओं की स्मृति मुझमें अभी भी बनी हुई है। चल-फिर पाने में और अपनी भावनाओं को मुक्त रूप से व्यक्त कर पाने में असमर्थ होने के कारण मैं विक्षुब्ध रहता था। अपने शरीर की अक्षमताओं का भान होते ही प्रार्थना की लहरें मेरे भीतर उठने लगती थीं।
मेरे व्याकुल भाव अनेक भाषाओं के शब्दों में मेरे मन में व्यक्त होते थे। विविध भाषाओं के आंतरिक संभ्रम के बीच मैं धीरे-धीरे अपने लोगों के बंगाली शब्द सुनने का अभ्यस्त होता गया। यह थी शिशु-मस्तिष्क की मन बहलाने की सीमा, जिसे बड़े लोग केवल खिलौनों और अंगूठा चूसने तक ही सीमित मानते हैं!
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